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चार शिक्षिकाओं ने बदल दी इस प्राइमरी स्कूल की तस्वीर, अपने बजट से कराया सुधार 

चार शिक्षिकाओं ने बदल दी इस प्राइमरी स्कूल की तस्वीर, अपने बजट से कराया सुधार

कहते हैं अगर कुछ करने की ठान ली जाए तो फिर असंभव कुछ भी नहीं है। ऐसा ही कुछ कर दिखाया है सुल्तानपुर जिले की चार शिक्षिकाओं ने जिन्होंने अपने खर्चे से विद्यालय की सूरत बदल दी। यही नहीं उनके नेककाम में गांव प्रधान ने भी साथ दिया। अब सबकी मेहनत का ही नतीजा रहा है कि विद्यालय की सूरत ऐसी बदली है कि अब यहां की सभी तारीफ कर रहे हैं।
यूपी के सुल्तानपुर जिले में दुबेपुर ब्लाक क्षेत्र के कबरी नाम गांव में माध्यमिक एवं प्राथमिक विद्यालयों की दशा को यहां की शिक्षिकाओं ने बदल दिया है। विद्यालय की तस्वीरों को देखकर साफ झलकता है कि इन शिक्षिकाओं ने विद्यालय को नया रूप देने के लिए कितनी मेहनत की है।

विद्यालय में कार्यरत शिक्षिका ऋचा पाण्डे जो कि प्राइमरी स्कूल की प्रधानाध्यापिका हैं। इसके अलावा शिक्षिका के रूप में यहां पर नीलम, विजय लक्ष्मी सिंह और संजू पांडे कार्यरत हे। इन लोगों ने विद्यालय को एक घर की तरह रखा। विद्यालय की प्रधानाध्यापिका ऋचा पाण्डेय ने बताया कि उन्होंने वर्ष 2005 में एक सहायक अध्यापक के तौर पर विद्यालय में ज्वाइन किया था। वर्ष 2012 में विद्यालय में बतौर प्रधानाध्यापिका 2012 के रूप में जॉइन किया।

ऋचा ने बताया कि इस विद्यालय में प्रधानाध्यापिका का पद पिछले कई वर्षों से खाली पड़ा था। कोई वहां नियुक्ति ही नहीं ले रहा था। ऐसे में वहीं आगे और एक बड़ी जिम्मेदारी ली। विद्यालय का चार्ज न लेने की असल वजह यह रही कि विद्यालय गाँव मे बहुत दूर था, गाड़ी जाने का उपयुक्त रास्ता नही था, विद्यालय में बच्चों को बैठने के लिए बेंच तक नही थी, क्लास रूम में पंखे नही थे, दीवारों का कलर उतर गया था, जमाने से पेंट नही हुआ था।

यह विद्यालय एक तरह से खंडहर के रूप में ही दिखता था। ऐसे में ऋचा पाण्डेय ने इस स्कूल का चैलेंज स्वीकार किया। जिस समय उन्होंने प्रधानाध्यिपका का चार्ज लिया था, उस समय प्राइमरी स्कूल का बजट न के बराबर होता था, समझिए जीरो बजट होता था। सीमित बजट में ऋचा ने साफ सफाई करवाई व दीवारों को कलर करवाया और कमरों में पंखे लगवाए ताकि कुछ अच्छा बनाया जा सकें।
ऋचा बताती है कि जब धीरे-धीरे शिक्षकों की संख्या बड़ी तो विद्यालय की दशा सुधारने का उन्होंने प्रयास किया। वह बताती है कि 2 से 3 वर्ष बीत गए और एक दिन उन्होंने दूसरी अध्यापिकाओं से बातचीत की। उन्होंने अपनी इच्छा बताई कि स्कूल में बेंच होनी चाहिए। हमारे यहां पर बच्चे जमीन पर बैठते हैं। वो बेंच पर बैठेंगे तो अच्छा लगेगा। इस पर सभी शिक्षिकाओं ने भी सहमति जता दी। इस काम के लिए उन्हें बजट की आवश्यकता था क्योंकि बेंच का प्रोजेक्ट विद्यालय में 50 हजार रुपये का था।

अगर बात स्कूल के खाते की जाए तो स्कूल में बजट जीरो था। ऐसे में उन्होंने तय किया कि समाज से भी सहायता मांगेगी अगर कम हुआ तो फिर अपनी सैलरी से पेसा लाएंगी। शिक्षिकाओं ने प्रधान के पास जब यह प्रस्ताव रखा तो उन्होंने विद्यालय के हित में 10,000 का दान दे दिए। इसके बाद फिर धीरे-धीरे बेंच का काम शुरू हो गया। 26 जनवरी को बेंच अपनी अपनी क्लासरूम में लग गई। यही नहीं, बाकी का पैसा धीरे-धीरे कुछ सरकारी खर्चो से पूरा कर दिया गया।

अपने पास से देते हैं बच्चों को किताबें

विद्यालय में बच्चों के हित में काम करते हुए यहां की शिक्षिकाओं ने बच्चों को अपनी सैलरी से खर्च देने की बात कहीं है। उन्होंने बताया कि हम लोग कभी अपनी सैलरी से पैसे खर्च कर के बच्चों को कॉपी पेंसिल आदि की मदद करते हैं। यही नहीं जब इस बारे में यहां की शिक्षिकाओं से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि बच्चों के प्रति ममत्व सा लगाव है। शिक्षिकाओं ने कहा कि ये बच्चे अपने ही बच्चे हैं, अपने बच्चों को संभालना पड़ता है, उनको हम साल भर पढ़ाई के लिए डाँटते हैं, गुस्सा करते हैं, तब भी वो हमें प्यार करते हैं, सम्मान देते हैं। उन्हें भी तो प्यार दुलार का अधिकार है, सरकार ने शिक्षा का अधिकार दिया है, विद्यालय के माध्यम से प्रयास भी कर रही है, तो क्या हम लोग प्यार दुलार से देख रेख भी नही कर सकते, आखिर हैं तो हमारे ही बच्चे।

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