बहुत पुरानी बात है। जिसकी अब तक की कुल जमा जिंदगी ही 27-28 साल की हो, उसके लिए 15 वर्ष भी काफी होते हैं। यह बात 1992 के सावन की है। अपने जन्मस्थान में मचे बावेले के कारण अकेले भगवान राम ही दुखी नहीं थे।
सरयू नदी के इस पार मैं भी अपने ननिहाल में घटी एक घटना के कारण बहुत दुखी था। उस वर्ष मम्मी राखी पर दो दिनों के लिए मामा के यहाँ क्या गई, नानी की बीमारी के कारण पूरे एक महीने तक घर नहीं लौटी। मैं कोई मम्मी की साड़ी का पल्लू थामकर उनके पीछे छूमने वाला पप्पू नहीं था। न ही खाने की मेज पर बैठकर मुँह बिचकाने वाला बिगड़ैल बच्चा, लेकिन खाने के लिए लगातार कच्ची रोटियाँ और जली हुई सब्जियाँ ही मिलने लगे तो कोई भी कुछ भी कर गुजर सकता है।
वैसे तो मम्मी हमारे यहाँ काम करने वाली बाई मनु को खाना बनाने के लिए कह गई थी। पापा पहले दिन से ही शोर मचाने लगे कि सब्जी में तेल ज्यादा है और दाल में नमक कम। रोटियाँ मोटी हैं तो भात पतला। यानी कुछ भी अच्छा नहीं। दो दिनों तक जली-कटी सुनने के बाद मनु ने खाना पकाने से पल्लू झाड़ लिया। पापा को भी क्या सूझा कि अपनी लुंगी कसते हुए उन्होंने खुद ही खाना बनाने की ठान ली। देश आजाद होने के पूरे 45 वर्ष बाद वे आजादी और आत्मनिर्भरता की बातें करने लगे। सबसे पहले उन्होंने आलू उबालना सीखा। पता नहीं इसमें सीखने की क्या बात थी? जलते स्टोव पर एक पतीले भर पानी में बैठे चार आलू उबलने के अलावा और कर ही क्या सकते थे?
बहुत पुरानी बात है। जिसकी अब तक की कुल जमा जिंदगी ही 27-28 साल की हो, उसके लिए 15 वर्ष भी काफी होते हैं। यह बात 1992 के सावन की है। अपने जन्मस्थान में मचे बावेले के कारण अकेले भगवान राम ही दुखी नहीं थे।
मैं नहीं बताऊँगा कि अगले कुछ दिनों में पापा ने क्या-क्या सीखा। वे अमीबा के आकार की और डाल्मेशियन कुत्ते के चित्तीदार खाल जैसी दिखने वाली रोटियाँ बनाने लगे। पालक, मेथी, मूली या कोई भी पत्तेदार सब्जी हो, वे उसे-जले-काले चिपचिपे पदार्थ में बदल देते। उनदिनों अरहर की पीली दाल हमारे घर में दो किस्म की बनती थी। एक पीली पनियल और दूसरी खड़ा चम्मच, यानी जिसे निकालने के लिए गड़ाया हुआ चम्मच गड़ा ही रहता। यह सब खाना और पचाना मेरे लिए बड़ा कठिन हो रहा था।
सारा देश आमिर खान की ‘जो जीता वही सिकंदर’ देखकर खुश हो रहा था। बस मैं ही हारे हुए पोरस की तरह उदास था। पानी के साथ कौर निगलता तो पापा कहते कि हाजमा खराब होगा। मुँह बनाता तो कहते कि आजकल के बच्चों को घर का खाना सुहाता ही नहीं है। फिर उनका नाम भी दादाजी ने जवाहर रख छोड़ा था। सो माँ के लौटने से पहले वे मुझे अच्छा नागरिक बना छोड़ने की जिद पकड़े हुए थे।
हमारा स्कूल भी यही बात कहता था कि वे भविष्य के ईमानदार और जिम्मेदार नागरिक बनाते हैं। हमारा तीर्थरूपी गंगाबाई कजौड़ीमल बाल मंदिर अपने इंडिपेंडस के मामले में इतना जागरूक था कि टिफिन की छुट्टी में कोई भी बाहर का समोसा-कचौरी या इमली-बेर नहीं खरीद सकता था। स्कूल में कैंटीन नहीं होने के कारण सभी छात्र घर से अपना लंच बॉक्स लाते थे। यह भी उन्हीं दिनों की बात है।
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