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प्रेरक प्रसंग

चंद्रशेखर आजाद जयंती: आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे… 

चंद्रशेखर आजाद जयंती: आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे…

देश को आजाद कराने में अहम भूमिका निभाने वाले क्रांतिकारियों का जब भी नाम लिया जाता है, उसमें अग्रिम श्रेणी चंद्रशेखर आजाद का नाम आता है। अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले भारत भूमि के महान सपूत चंद्रशेखर आजाद का आज जन्मदिन है। संपूर्ण राष्ट्र आज उन्हें याद कर रहा है। किशोरावस्था में काशी में संस्कृत पढ़ने आए चंद्रशेखर तिवारी को उनकी बहादुरी और अदम्य साहस के कारण ‘आजाद’ नाम ज्ञानवापी में हुई सभा में मिला।
देश को आजाद कराने के लिए ‘आजाद’ का जन्म कहां से हुआ है, अगर इस पर गौर किया जाए, तो अंग्रेजों के 15 कोड़ों की सजा सुनाएं जाने से हुआ है। महज 14 साल की उम्र में जब वह पहली बार कैद में आए तो उन्हें 15 कोड़ों की सजा सुनाई गई थी। देश को आजाद कराने के पीछे उनके अंदर इतना जज्बा था कि वह पीठ पर कोड़े खाते रहे और वंदे मातरम् का उद्घोष करते रहे।

इस उम्र में ही चुना क्रांति का रास्ता

क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का आज जन्म दिन है। आज ही के दिन यानि 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश में हुआ था। उनका जन्म स्थान मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले का भाबरा में हुआ था। कुछ विद्वान उनका कनेक्शन उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले से भी जोड़ते हैं। काशी में पढ़ने गए आजाद 1920 में 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर आजाद गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़े थे। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी था। आजाद की मां जगरानी देवी उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहती थीं, इसी वजह से किशोरावस्था में पढ़ाई के लिए उन्हें काशी भेजा गया था।

ऐसे आजाद हुआ का जन्म

अंग्रेजों को देश से बाहर करने के लिए महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोनल शुरू किया था। महात्मा गांधी की तरफ से चलाए गए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन में वह काशी में सक्रिय हो गए। वर्ष 1921 में काशी में छात्रों का एक समूह विदेशी कपड़ों की दुकान के बाहर धरना दे रहा था। इसी दौरान पुलिस आई और धरना दे रहे सभी को लाठियों से पीटने लगी।

15 वर्षीय छात्र चंद्रशेखर तिवारी को पुलिस की इस बबर्रता पर गुस्सा आ गया और उन्होंने दरोगा को पत्थर मार दिया। पुलिस ने चंद्रशेखर को गिरफ्तार कर लिया और मजिस्ट्रेट के सामने ही पेश किया। मजिस्ट्रेट ने सामने पेश हुए चंद्रशेखर से जब नाम पूछा गया तो, उन्होंने अपना नाम आजाद बताया। वहीं, मां का नाम धरती, पिता का नाम पूछने पर जोर से बोले, ‘स्वतंत्रता’ और घर का पता पूछने पर बोले -जेल।

मजिस्ट्रेट ने किशोर चंद्रशेखर का तेवर देख कर उन्होंने सरेआम 15 कोड़े लगाने की सजा सुनाई। इस दौरान जब उनकी पीठ पर 15 कोड़े बरस रहे थे और वो वंदे मातरम् का उदघोष कर रहे थे। बस यही से देशवासी उन्हें आजाद के नाम से पुकारने लगे। बस यही से उनकी लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ने लगी और उनकी ख्याति भी बढ़ गई।

बचपन से निशानेबाज थे पर और ऐसे क्रांतिकारी बने आजाद

बनारस की घटना से लोकप्रिय आजाद बचपन से बहुत बड़े निशोनबाज थे। उनकी निशानेबाजी बचपन से बहुत अच्छी थी। उन्होंने निशानेबाजी के लिए बकायदा ट्रेनिंग ली थी और उन्होंने यह गुण बचपन में ही सिखा था। सन् 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया तो चंद्रशेखर सहित अन्य युवाओं का कांग्रेस से मोहभंग हो गया।

उन्होंने पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ का गठन किया। चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गए। काशी में पढ़ाई के दौरान मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के संपर्क में आजाद आए थे। काकोरी कांड, अंग्रेज अफसर जेपी सांडर्स की हत्या और दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट जैसी घटनाओं में अग्रणी भूमिका निभाई।

चंद्रशेखर आजाद ने 1928 में लाहौर में ब्रिटिश पुलिस ऑफर एसपी सॉन्डर्स को गोली मारकर क्रांतिकारी लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था। यही नहीं, आजाद रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) से जुड़ने के बाद उनकी जिंदगी बदल गई। उन्होंने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी कांड (1925) में सक्रिय भाग लिया था।

आजाद हैं, आजाद रहेंगे
आजादी के लिए लड़ाई लड़ने वाले वीरों में शामिल चंद्रशेखर आजाद उस दौरान दुश्मनों पर गोलियां बरसा रहे थे। चंद्रशेखर आजाद कहते थे कि ‘दुश्मन की गोलियों का, हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे’ उनके इस नारे को एक वक्त था कि हर युवा रोज दोहराता रहता था। उनकी इनती लोकप्रियता थी कि जब भी वह जिस शान से मंच से बोलते थे, हजारों युवा उनके साथ जान लुटाने को तैयार हो जाता था। अंग्रेजों से लोहा लेते हुए आजाद प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी 1931 को वीरगति को प्राप्त हुए थे। आखिर में उन्होंने अपना नारा आजाद है आजाद रहेंगे अर्थात न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी को याद किया। जाते-जाते एक शेर बोल गए आजाद…

दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,
आज़ाद ही रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे।

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