झारखंड राज्य के जमशेदपुर जिले के जमशेदपुर प्रखंड के सबसे अंतिम गांव सिरका की महिलाओं की कहानी बहुत ही अजीब है। यहां पर चारों ओर पहाड़ व जंगल से घिरे इस गांव तक पहुंचने के लिए टूटे-फूटे रास्ते हैं। जमशेदपुर प्रखंड का अंतिम गांव होने के कारण इस आदिवासी बहुल गांव की अनदेखी शासन से लेकर प्रशासन तक अब तक करती आ रही है। लेकिन यहां की महिलाओं ने अपने हक के लिए अलग तरीका अपनाया है। इस कोरोना काल में भले ही यहां पर दो जून की रोटी के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है, लेकिन यहां पर कुछ नया करने का तरीका किया जा हा है।
यहां पर कोरोना से बेखबर इस गांव के लोगों के लिए दो जून की रोटी के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। यह गांव पूरी तरह से कोराना संक्रमण से बेखबर रोजमर्रा की सामग्री की पूर्ति भी नहीं कर पा रहे हैं। गांव में एक समिति बनी हुई है, जिसमें 150 सदस्य हैं। अध्यक्ष संगीता मुर्मू व कोषाध्यक्ष गणेश हांसदा हैं। दोनों ही व्यक्ति ग्राम प्रधान के सहयोग से गांव वालों को पत्तल बनवाने का काम करते हैं। उसी पत्तल बिक्री करने से मिलने वाली रकम से गांव वाले दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हैं। इस समय गांव के लिए बहुत बड़ी समस्या है। अब गांव के लोग किसी भी तरह से रोजी-रोटी का इंतजाम कर रहे हैं।
गांव में नहीं कोई स्कूल
इस गांव में तरक्की की पहली सीढ़ी अर्थात् स्कूल ही नहीं है। गांव में स्कूल नहीं होने के कारण करीब 100 बच्चे कीचड़युक्त रास्ता व घने जंगल से होते हुए तीन किमी दूर हड़माडीह स्कूल में पढ़ने जाते हैं। इस समय कोरोना की वजह से स्कूल बंद चल रहे हैं, लेकिन आम दिनों में यहां के बच्चों के सामने बड़ी समस्या है। ग्रामवासी गणेश हांसदा कहते हैं कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित है गांव। यहां न स्कूल है, न सामुदायिक भवन और न रोजगार के साधन। उन्होंने बताया कि कुछ माह पूर्व गांव में टीएसआरडीएस की ओर से सोलर पंप लगाया गया है जिससे फिलहाल पानी की किल्लत नहीं हो रही है। बिजली है लेकिन माह में आधे दिन ही रहती है। यह गांव पूरी तरह से पत्तल के काम पर ही निर्भर है। यहां पर एक परिवार एक दिन में 200-250 पत्तल बना लेते हैं। जिसे सप्ताह में दो से तीन दिन जमशेदपुर में लाकर बिक्री करते हैं। 100 पत्तल 30 रुपये के हिसाब से बिक्री करते हैं। इस तरह सप्ताह में बमुश्किल 300 रुपये कमा पाते हैं। इसी से अपनी आवश्कता की पूर्ति करते हैं।
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