भारत के एक क्रांतिकारी ने अंग्रेजों के साथ जंग की और भगत सिंह के साथ मिलकर लड़ा। भगत सिंह को फांसी हुई, लेकिन उसे फांसी नहीं हुई। वह क्रांतिकारी आजादी के बाद जिंदा रहा, लेकिन जिन हालातों से गुजरा, वह दर्द बयां नहीं किया जा सकता है। बीमारी के समय जब दिल्ली इलाज के लिए आए, तो उन्होंने कहा, “मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस दिल्ली में मैंने जहां बम डाला था, वहां एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लादा जाऊंगा।”
वीरता की अंतिम पराकष्ठा रहे क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का आज निर्वाण दिवस है। आजादी के बाद उनके साथ जो हाल हुए वह वास्तव में किसी भी क्रांतिकारी के साथ में नहीं हुआ होगा। दोस्ती की मिसाल रहे बटुकेश्वर दत्त की जब मौत हुई, तो उनकी भी समाधि दोस्त भगत सिंह के बगल में ही बनाई। यही नहीं, इसके बारे में यह भी कहा जाता है कि जब उनसे भगत सिंह की मां मिलने आई, तब उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा यही जाहिर की थी, कि उनकी समाधि दोस्त भगत सिंह के बगल में ही बनाई जाएं। असेम्बली पर बम फेंकने वाले इस वीर को आज पूरा देश याद कर रहा है।
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1908 में कानपुर में हुआ था। उनका पैत्रिक गांव पश्चिम बंगाल के ‘बर्दवान जिले’ में था, पर उनके पिता ‘गोष्ठ बिहारी दत्त’ कानपुर में नौकरी करते थे। बटुकेश्वर दत्त ने वर्ष 1925 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी उनके माता व पिता दोनों का देहान्त हो गया। इसी समय वे सरदार भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ के सदस्य बन गए।
संगठन में धीरे-धीरे उनकी सहभागिता बढ़ती गई और उन्होंने सुखदेव और राजगुरु के साथ में भी विभिन्न स्थानों पर काम किया। प्रतिशोध की भावना विदेशी सरकार जनता पर जो अत्याचार कर रही थी, उसका बदला लेने और उसे चुनौती देने के लिए उन्होंने काम किए। ‘काकोरी’ ट्रेन की लूट और लाहौर के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या भी इसी क्रम में हुई। तभी सरकार ने केन्द्रीय असेम्बली में श्रमिकों की हड़ताल को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से एक बिल पेश किया।
8 अप्रैल, 1929 ई. को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दर्शक दीर्घा से केन्द्रीय असेम्बली के अन्दर बम फेंककर धमाका कर दिया। यह बम इस प्रकार बनाया गया था कि, किसी की भी जान न जाए। बम के साथ ही ‘लाल पर्चे’ की प्रतियां भी इन क्रांतिकारियों ने फेंक दी थी। जिनमें बम फेंकने का क्रान्तिकारियों का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। दोनों ने वहां से बच निकलने का कोई प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि वे अदालत में बयान देकर अपने विचारों से सबको परिचित कराना चाहते थे। उन्होंने कहा कि हमारा उद्देश्य क्रांतिकारियों की स्थिति को स्पष्ट करना था कि हम लोग किस तरह से काम करते हैं। इसके मुद्दे भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर मुकदमा चलाया गया।
6 जुलाई, 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान के आधार पर ही उन्हें आजीवन का कारावास सुनाया गया। बाद में लाहौर षड़यंत्र केस में भी दोनों अभियुक्त बनाए गए। इससे भगतसिंह को फांसी की सजा हुई, पर बटुकेश्वर दत्त बच गए। उनके विरुद्ध पुलिस कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई। उन्हें आजीवन कारावास की सजा भोगने के लिए अण्डमान यानी काला पानी भेज दिया गया। उन्हें टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे। इसके पूर्व राजबन्दियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार के लिए भूख हड़ताल में बटुकेश्वर दत्त भी सम्मिलित थे।
स्वतंत्रता के बाद वह जुटे और नवंबर 1947 में अंजलि कुमार नाम की महिला के साथ में शादी करके वे पटना में रहने लगे। यहां पर उन्होंने बिजनेस भी शुरू किया, वह भी सही तरह से चला नहीं। उनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि दत्त को जीते जी भारत ने भुला दिया गया था। इस बात का खुलासा नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताब “बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह के सहयोगी” में किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपनी जीविका के लिए एक सिगरेट कंपनी में एजेंट की नौकरी कर ली थी।
देश के बड़े क्रांतिकारी में शुमार रहे बुटकेश्वर दत्त आजादी के बाद यू भटक रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे। परमिट के लिए दत्त ने भी आवेदन किया था। परमिट के लिए जब वो पटना के कमिश्नर से मिलने गए तो कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लाने को कहा था। यह बात बटुकेश्वर दत्त के लिए दिल तोड़ने वाली थी। इस मुद्दे की जानकारी जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को हुई, तो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से माफी मांगी।
उन्हें पचास के दशक में उन्हें चार महीने के लिए विधान परिषद् का सदस्य मनोनीत किया गया। ऐसा कहा जाता है कि अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे बटुकेश्वर दत्त 1964 में बीमार पड़ गए। उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनको इस हालत में देखकर उनके मित्र चमनलाल आज़ाद ने एक लेख में लिखा “क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी गलती की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।”
ऐसा कहा जाता है कि जब यह लेख समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ, तो सत्ता में बैठे लोगों को क्रांतिकारी की मदद करने का एहसास हुआ। पंजाब सरकार सबसे पहले आगे आई, उसके बाद फिर बिहार सरकार भी मदद के लिए आगे आई। उन्हें इलाज के लिए दिल्ली के एम्स में भर्ती कराया गया। जहां पर उनकी मौत 20 जुलाई, 1965 को हो गई। उन्हें कैंसर हो गया था।
बलिदान उपरान्त बटुकेश्वर दत्त की समाधि फिरोजपुर में हैं और उन्हीं के साथी भगत सिंह की ही समाधि के बगल में बनाई गई। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था: “मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस दिल्ली में मैंने जहां बम डाला था, वहां एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लादा जाऊंगा।” लेखक अनिल वर्मा की माने तो कैंसर की जानकारी होने के बाद वह वे अपने साथियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को याद करके अक्सर रो पड़ते थे। उन्होंने भगत सिंह की मां विद्यावती से अंतिम इच्छा जताते हुए कहा कि उनका दाह संस्कार भी उनके मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।
उनका अंतिम संस्कार भी भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के पास में ही किया गया। भगत सिंह की मां तब भी उनके साथ थीं। विरेन्द्र कौर संधू के अनुसार 1968 में जब भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के समाधि-तीर्थ का उद्घाटन किया गया तो इस 86 वर्षीया वीर मां ने उनकी समाधि पर फूल चढ़ाने से पहले श्री बटुकेश्वर दत्त की समाधि पर फूलों का हार चढ़ाया था। हमेशा ही बटुकेश्वर दत्त चाहते थे कि मुझे भगतसिंह से अलग न किया जाए।
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