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मेरे स्कूल वाले दिन

वो क्लास की बैक बेंच का मजा अमरूद और समोसे की खुशबू 

वो क्लास की बैक बेंच का मजा अमरूद और समोसे की खुशबू

बचपन कानपुर में बीता और पढाई भी वहीं हुई। कानपुर के बचपन के दोस्त, टीचर सब याद हैं। बचपन की कहानियां सहेजे तिकोना पार्क, मौनी घाट वाले हनुमान जी शेरा बाबू वाले हनुमान जी, सेंटर वाला पार्क हैं तो जरूर पर चहल पहल नहीं है। अपने पुराने स्कूल से गुजरा तो बहुत कुछ याद आया। हमारा ब्लैकबोर्ड में बचपन के स्कूली दिन के कुछ पल यहां समेटने भर की कोशिश की है बस।
बचपन के वो दिन। कानपुर के वीएसएसडी कालेज का ग्राउण्ड। स्कूल आने जाने का रास्ता। पीठ पर लगा बैग स्कूल जाते समय भारी और आते समय हलका। घर आकर बस्ता कंधे से उतारा और किसी तरह कपड़े बदले और चल दिए पास वाले तिकोना पार्क। क्रिकेट शुरू गेंद कभी लेदर वाली तो कभी कार्क वाली होती थी। चार रन बनाने में खतरा नहीं पर जैसे गेंद उठाई चली गई मैदान के बाहर और किसी के घर की खिडक़ी टूटी या फिर खोपड़ी फूटी। फिर गेम ओवर और तुरंत मैदान छोड़ उसकी चहारदीवारी के पीछे छिपना पड़ता था। गेंद मागंने जाना उन दिनों सबसे बड़ा खतरा होता था। इसलिए दूसरे दिन चंदा लगाकर दूसरी गेंद आती थी और दूसरे पार्क जाना पड़ता था। खेल के बाद भी थकान पास नहीं फटकती थी। होमवर्क भी कम्पलीट और शाम को थोड़ी साइकिलिंग भी हो जाती थी। साइकिल सीखते समय घुटने छिलते लेकिन मिट्टी लपेट लेते थे ताकि पता न चले। घर आकर थोड़ा डेटाल लगाया दूसरे दिन सब फिट। रात में बिजली गुल हुई तो समझो लगी अपनी लॉटरी। लुका छिपी का वह दौर जो बिजली आने के बाद ही खत्म होता था। सब मनाते थे कि बिजली न आए अभी। सच बताउं तो आज बिजली जाने पर कोई इनज्वाय नहीं करता। इनवर्टर हैं जेनरेटर हैं पर अंधेरे में लुका छिपी का खेल खेलने वाला वह बचपन अब नहीं है।
स्कूल में सबसे पीछे की सीट
जिसे आज लोग बैक बेंचर कहते हैं पहले क्लास मेें शरारती बच्चों या लम्बे बच्चों को पीछे बैठाया जाता था। लेकिन हमारे क्लास में पीछे की सीट पर बैठने की होड लगी रहती थी। कारण वहां से सडक साफ दिखती थी। खिडकी पर अमरूद के पेड की डालियां हम सबकी अच्छी दोस्त हुआ करती थीं। उस पर लगे अमरूद देख हम ललचाते थे। कई लोग जानबूझ कर शरारत करते थे ताकि वह पीछे भेजे जायें। पीछे बैठ कर सडक पार समोसे वाली दुकान भी दिखती थी। कढाई में खौलते घी में जब समोसे डाले जाते और फिर तले जाते तो उसकी खुशबू मन को तर कर देती थी। यह समोसे की दुकान हमारे ही साथ पढने वाले पावस गुप्ता की हुआ करती थी। लंच में जिसे समोसे खाने होते थे वह टीचर व स्कूल पर मौजूद गेटमैन की नजर बचाकर सडक पार कर समोसे लेने चला जाता था। उधर अगर पेड की डाली हाथ में आ गई तो अमरूद चाहे पका हो या कच्चा दो चार तो मिल ही जाते थे। फिर कच्चे अमरूद को छीलने वा उसके बंटावारे का अदभुत आनंद कभी भी और किसी भी उम्र में नहीं मिल सकता।
स्कूलों दिनों के पिटारे में अभी बहुत कुछ है। कुछ पन्ने अब फडफडा रहे हैं लेकिन बाकी की बात फिर कभी। जल्द ही फिर मिलेंगे इसी जगह।

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